जीवन के चौराहे पर, सब गलियाँ मिल जाती हैं। मरुथल में भी अनायास, झीलें मिल जाती हैं।। बेहोशी में पड़े रहे तो, प्राण निकल जायेंगे, पाकर पवन झकोरें, सोये गुल खिल जायेंगे, सरिता की धाराएँ, खारे जल में घुल जाती हैं। मरुथल में भी अनायास, झीलें मिल जाती हैं।। सफर, सफर है, इसमें यादें आती जाती है, रिश्तों की बुनियाद, सफर में बनती जाती है, भूली-बिसरी बात, कहानी में ढल जाती हैं। मरुथल में भी अनायास, झीलें मिल जाती हैं।। मेंहदी तो सजनी-साजन के, हाथों में रचती है, उसकी महक हृदय के, कोने-कोने में बसती है, भँवरे को फिर से, उसकी गुंजन मिल जाती है। मरुथल में भी अनायास, झीलें मिल जाती हैं।। प्रेम अमर है, प्रेम अजर है, उसकी अपनी भाषा है, ढाई आखर में ही सबकी, रची-बसी जिज्ञासा है, मिलन-यामिनी में, उलझी लड़ियाँ खुल जाती हैं। मरुथल में भी अनायास, झीलें मिल जाती हैं।। |
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रविवार, 5 जुलाई 2009
डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ का एक गीत
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मेरा गीत प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंमुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! वाह बहुत ही बढ़िया गीत!
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